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अ॒ह॒स्ता यद॒पदी॒ वर्ध॑त॒ क्षाः शची॑भिर्वे॒द्याना॑म् । शुष्णं॒ परि॑ प्रदक्षि॒णिद्वि॒श्वाय॑वे॒ नि शि॑श्नथः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ahastā yad apadī vardhata kṣāḥ śacībhir vedyānām | śuṣṇam pari pradakṣiṇid viśvāyave ni śiśnathaḥ ||

पद पाठ

अ॒ह॒स्ता । यत् । अ॒पदी॑ । वर्ध॑त । क्षाः । शची॑भिः । वे॒द्याना॑म् । शुष्ण॑म् । परि॑ । प्र॒ऽद॒क्षि॒णित् । वि॒श्वऽआ॑यवे । नि । शि॒श्न॒थः॒ ॥ १०.२२.१४

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:22» मन्त्र:14 | अष्टक:7» अध्याय:7» वर्ग:8» मन्त्र:4 | मण्डल:10» अनुवाक:2» मन्त्र:14


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्-अहस्ता अपदी क्षाः) जो दोनों हाथों से न ग्राह्य, न पैरों से प्राप्त होने योग्य, ऐसी अध्यात्मभूमि (वेद्यानां शचीभिः-वर्धते) वेदितव्य निवेदन करने योग्य स्तुतियों द्वारा परमात्मा साक्षात् होता है (विश्वायवे) पूर्ण आयु प्राप्त कराने के लिए (शुष्णं परि प्रदक्षिणित्) शोषण करनेवाले-बन्धन करनेवाले राग आदि पापों को परमात्मा सब ओर से दबाकर (निशिश्नथः) नष्ट करता है ॥१४॥ अथवा− (यत्-अहस्ता अपदी-क्षाः) जो हाथों से बन्धन में न करने योग्य और न पैरों से बन्धन में करने योग्य राष्ट्रप्रजा अथवा न हाथों द्वारा कर्षण योग्य-खेती करने अयोग्य न पैरों द्वारा यात्रा करने योग्य, ऐसी सकण्टका भूमि (वेद्यानां शचीभिः-वर्धते) वेदितव्य प्रजाओं तथा कर्मों द्वारा सुखसम्पन्न होती है-बढ़ती है (विश्वायवे) सर्वजन के जीवनार्थ (शुष्णं परि प्रदक्षिणित्) शोषक प्रजाघातक चोर आदि हिंसक तथा दुर्भिक्ष को सब ओर से शोधकर (नि शिश्नथः) राजा नष्ट करता है ॥१४॥
भावार्थभाषाः - जो हाथों से न ग्रहण करने योग्य, न पैरों से प्राप्त करने योग्य आध्यात्मभूमि-योगभूमि होती है, वह निवेदन करने योग्य स्तुतियों द्वारा बढ़ती है-सम्पुष्ट होती है। मोक्षसम्बन्धी आयु को प्राप्त कराने के लिए परमात्मा बन्धनकारक रागादि को सर्वथा नष्ट कर देता है एवं राजा जो प्रजा न हाथों और न पैरों से बन्धन के योग्य-अनुशासनरहित है और जो भूमि हाथों से खेती करने के अयोग्य और पदयात्रा के अयोग्य कण्टकाकीर्ण है, उस ऐसी प्रजा एवं भूमि को राजा उपयोगी बनाता है ज्ञानशिक्षाओं से या विविध उपायों से। जो प्रजाओं में या राष्ट्रभूमि में औरों का शोषण करनेवाले चोर आदि या दुर्भिक्ष कदाचित् आ जाएँ, उन्हें नष्ट करता है ॥१४॥
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्-अहस्ता-अपदी क्षाः) हस्ताभ्यां न ग्रहीतुं योग्या न पद्भ्यां प्राप्तुं योग्या तथाभूता क्षाः-भूमिः-अध्यात्मभूमिः ‘सुपां सुपो भवन्तीति” सुस्थाने जस् (वेद्यानां शचीभिः वर्धते) वेदितव्याभिः-निवेदनीयाभिः विभक्तिव्यत्ययः “वेद्याभिर्वेदितव्याभिः” [निरु० २।२१] वाग्भिः “शचीति वाङ्नाम” [निघ० १।११] परमात्मनः उत्तमस्तुतिभिर्वर्धते सम्यङ् निष्पद्यते (शुष्णं परि प्रदक्षिणित्) शोषयितारं बन्धनकर्त्तारं रागादिकं पापं त्वमिन्द्र परमात्मा परितः प्रदक्षिणामेत्य सर्वतः परिभूय (विश्वायवे) स्तोतॄणां पूर्णायुर्दानाय (नि शिश्नथः) हंसि “श्नथयति वधकर्मा” [निघ० २।१३]। तथा− (यत्-अहस्ता-अपदी क्षाः) या हस्ताभ्यां न ग्रहीतुं योग्या न हस्तयोर्बन्धनयोग्या न च पादयोर्बन्धनयोग्या राष्ट्रप्रजा यद्वा न हस्ताभ्यां कृषिकरणयोग्या न पद्भ्यां यात्राकरणयोग्या तथाभूता सकण्टका भूमिः (वेद्यानां शचीभिः) वेदितव्याभिः प्रजाभिः-नीतिभिः कर्मभिर्वा “शची प्रज्ञानाम” [निघ० ३।९] “शची कर्मनाम” [निघ० २।१] (वर्धते) संवर्धते सुखसम्पत्त्या सम्पद्यते (शुष्णं परि प्रदक्षिणित्) शोषकं प्रजाघातकं चौरादिकं हिंसकं दुर्भिक्षं दुष्कालं परितोऽभिशोध्य (विश्वायवे) सर्वजनाय सर्वान्नाय वा (नि शिश्नथः) नाशय ॥१४॥